रामायण के दोहे जिससे ज़िन्दगी बदल सकती है जय श्रीराम /RAMAYAN KE DOHE

 

 

 

रामायण की विशेष दोहा: भारतीय साहित्य का अमूल्य रत्न

रामायण, भारतीय साहित्य का एक महत्वपूर्ण भाग है जिसमें धर्म, नैतिकता, और जीवन के मूल्यों की अद्वितीय शिक्षाएं समाहित हैं। इस पोस्ट में, हम रामायण से ली गई कुछ विशेष दोहाओं पर चर्चा करेंगे जो हमें जीवन के मार्ग पर मार्गदर्शन देती हैं।

रामायण की विशेष दोहा

  1. दोहा: चार बिद्या हरि तेहिं, पूजहिं नर बाल।
    बंदुधन मंगल मूरति राम लखन सहित जियौं जानु।।
    अर्थ: इस दोहे में गोस्वामी तुलसीदास जी ने रामायण के मुख्य कथाप्रवाह को संक्षेप में प्रस्तुत किया है। यहां पर हरि भगवान के चार गुण बताए गए हैं – धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष। उन्होंने कहा है कि ये चारों बिद्याएं हरि ही के पूजन से प्राप्त होती हैं और नर-नारी इन्हें पूजकर अपने जीवन को समृद्ध बना सकते हैं। इस दोहे में उन्होंने राम, लक्ष्मण, सीता, और हनुमान का उल्लेख किया है, जो रामायण के महानायक हैं।
  2. दोहा: सुख दुख जिया बिन बियो, सत्संगति लख्या न जाय।
    जाकी राम भगति रस बीती, तिनके काज सकल टिकाय।।
    अर्थ: इस दोहे में गोस्वामी तुलसीदास जी ने जीवन के सुख-दुःख को बिना राम भगवान के स्मरण के कठिनताओं के रूप में दिखाया है। वे कहते हैं कि जो भक्त राम भगवान के भक्ति में रस भूनते हैं, उनके सभी कार्य सही तरीके से संपन्न होते हैं और उन्हें सफलता मिलती है।

रामायण का सन्देश

रामायण भारतीय संस्कृति का गहरा हिस्सा है जो हमें धर्म, कर्म, और भक्ति के मार्ग पर मार्गदर्शन करता है। इसमें राजा राम के चरित्र, सीता माता की पतिव्रता, और हनुमान जी की सेवा का प्रेरणा देने वाला संदेश है जो हमें अच्छे और उच्च आदर्शों की ओर प्रेरित करता है।

रामायण की ये विशेष दोहे हमें शिक्षा देते हैं कि जीवन में सफलता के लिए धर्मपरायणता, सत्संगति, और भगवान के भक्ति में समर्पण आवश्यक हैं। ये दोहे हमें भारतीय संस्कृति और दर्शन के मूल तत्वों को समझाने में सहायक होते हैं।

  • दोहा राजिव नयन धरे धनु सायक। भगत बिपति भंजन सुखदायक॥ …
  • दोहा दैहिक दैविक भौतिक तापा। राम राज्य नहिं काहुहिं ब्यापा॥
  • दोहा बयरु न कर काहू सन कोई। …
  • दोहा रामकथा सुंदर करतारी। …
  • दोहा कवन सो काज कठिन जग माहीं। …
  • दोहा राम सुमिर सुमिर सुखु होई। …
  • दोहा करम प्रधान विश्व करि राखा। …
  • दोहा जड़ चेतन गुन दोषमय बिस्व कीन्ह करतार।
  • राम चरित मानस के 108 महत्‍वपूर्ण दोहे

    बालकाण्‍ड के के महत्‍वपूर्ण दोहे-

    संत सरल चित्र जगत हित, जानी सुभाउ सनेहु ।

    बाल बाल विनय सुनि करी कृपा, राम चरण रति देहु ।।1।।

    भलो भलाइहि पै लहइ, लहइ निचाइही नीचु ।

    सुधा सराहिअ अमरता, गरल सराहिअ यही मीचु ।।2।।

    जड़ चेतन जग जीव जत, सकल राममय जानि ।

    बंधउॅ सबके पद कमल, सदा जोरि जुग पानि ।।4।।

    भाग छोट अभिलाषु बड, करउॅ एक विश्वास ।

    पैहहि सुख सुनी सुजन, सब खल करिहहिं उपहास ।।5।।

    बिबुध बिप्र बुध ग्रह चरण, बंदी कहउॅ कर जोरि ।

    होइ प्रसन्न पुरवहु सकल, मंजू मनोरथ मोरी ।।6।।

    राम नाम मनिदीप धरूँ, जीह देहरी द्वार ।

    तुलसी भीतर बाहेरहुँ, जौ चाहसि उजियार ।।7।।

    ब्रह्म जो व्‍यापक बिरज अज, अकल अनीह अभेद ।

    सो कि देह धरि होइ नर, जाहि न जानत बेद ।।8।।

    प्रभु समरथ सर्बग्‍य सिव, सकल कला गुन धाम ।

    जोग ग्‍यान बैराग्‍य निधि, प्रनत कलपतरू नाम ।।9।।

    असुर मारि थापहिं सुरन्‍ह, राखहिं निज श्रुति सेतु ।

    जग बिस्‍तारहिं बिसद जस, राम जन्‍म कर हेतु ।।10।।

    जोग लगन ग्रह बार तिथि, सकल भए अनुकूल ।

    चरू अरू अचर हर्षजुत, राम जनम सुखमूल ।।11।।

    बिप्र धेनु सुर संत हित, लीन्‍ह मनुज अवतार ।

    निज इच्‍छा निर्मित तनु, माया गुन गो पार ।।12।।

    ब्‍यापक अकल अनीह अज, निर्गुन नाम न रूप ।

    भगत हेतु नाना बिध, करत चरित्र अनूप ।।13।।

    गौतम नारि श्राप बस, उपल देह धरि धीर ।

    चरन कमल रज चाहती, कृपा करहुँ रघुबीर ।।14।।

    राम लखनु दोउ बंधुबर, रूप सील बल धाम ।

    मख राखेउ सबु साखि जनु, जिते असुर संग्राम ।।15।।

    लताभवन तें प्रगट भे, तेहि अवसर दोउ भाइ ।

    निकसे जनु जुग बिमल बिधु, जलद पटल बिलगाइ ।।16।।

    मंत्र परम लघु जासु बस, बिधि हरि हर सुर सर्ब ।

    महामत्‍त गजराज कहुँ, बस कर अंकुस खर्ब ।।17।।

    राम बिलोके लोग सब, चित्र लिखे से देखि ।

    चितई सीय कृपायतन, जानी बिकल बिसेषि ।।18।।

    तहॉं राम रघुबंस मनि , सुनिअ महा महिपाल ।

    भंजेउ चाप प्रयास बिनु, जिमि गज पंकज नाल ।।19 ।।

    रामु सीय सोभा अवधि, सुकृत अवधि दोउ राज ।

    जहँ तहँ पुरजन कहहिं अस, मिलि नर नारि समाज ।।20।।

    मुदित अवधपति सकल सुत, बधुन्‍ह समेत निहारि ।

    जनु पाए महिपाल मनि, कियन्‍ह सहित फल चारि ।।21।।

    सुर प्रसून बरषहिं हरषि, करहिं अपछरा गान ।

    चले अवधपति अवधपुर, मुदित बजाइ निसान ।।23।।

    एहि सुख ते संत कोटि गुन, पावहिं मातु अनंदु ।

    भइन्‍ह सहित बिआहिं घर, आए रघुकुलचंदु ।।24।।

    मंगल मोद उछाह नित, जाहिं दिवस एहि भॉंति ।

    उमगी अवध अनंद भरि, अधिक अधिक अधिकाति ।।25।।

    अयोध्‍याकाण्‍ड के के महत्‍वपूर्ण दोहे-

    श्री गुरू चरन सरोज रज, निज मनु मुकुर सुधारि ।

    बरनउँ रघुबर बिमल जसु, दो दायकु फल चारि ।।26।।

    सब के उस अभिलाषु अस, कहहिं मनाइ महेसु ।

    आप अछत जुबराज पद, रामहिं देउ नरेसु ।।27।।

    राम राज अभिषेकु सुनि, हियँ हरषे नर पारि ।

    लगे सुमंगल सजन सब, बिधि अनुकूल बिचारि ।।28।।

    नामु मंथरा मंदमति, चेरि कैकइ केरि ।

    अजस पेटारी ताहि करि, गई गिरा मति फेरि ।।29।।

    काने खोरे कूबरे, कुटिल कुचाली जानि ।

    तिय बिसेषि पुनि चेरि कहि, भरतमातु मुसुकानि ।।30।।

    कवनें अवसर का भयउ, गयउॅा नारि बिस्‍वास ।

    जोग सिद्धि फल समय जिमि, जतिहि अविद्या नास ।।31।।

    होत प्रातु मुनिबेष धरि, जौं न रामु बन जाहिं ।

    मोर मरनु राउर अजस, नृप समुझिअ मन माहिं ।।32।।

    बरष चारिदस बिपिन बसि, करि पितु बचन प्रमान ।

    आइ पाय पुनि देखिहउँ, मनु जनि करसि मलान ।।33।।

    मातु पिता गुरू स्‍वामि सिख, सिर धरि करहिं सुभायँ ।

    लहेउ लाभु तिन्‍ह जनम कर, नतरू जनमु जग जायँ ।।35।।

    सपने होइ भिखारी नृप, रंकु नाकपति होइ ।

    जागे लाभु न हानि कछु, तिमि प्रपंच जियँ जोइ ।।36।।

    तब गनपति सिव सुमिरि, प्रभु नाइ सुरसरिहि माथ ।

    सखा अनुज सिय सहित बन, गवनु कीन्‍ह रघुनाथ ।।37।।

    स्‍यामल गौर किसोर बर, सुंदर सुषुमा ऐन ।

    सरद सर्बरीनाथ मुखु, सरद सरोरूह नैन ।।38।।

    एहि बिधि रघुकुल कमल रबि, मग लोगन्‍ह सुख देत ।

    जाहिं चले देखत बिपिन, सिय सौमित्रि समेत ।।39।।

    राम राम कहि राम कहि, राम राम कहि राम ।

    तनु परिहरि रघुबर बिरहँ, राउ गयउ सुरधाम ।।40।।

    भरतहि बिसरेउ पितु मरन, सुनत राम बन गौनु ।

    हेतु अपनपउ जानि जियँ, थकित रहे धरि मौनु ।।41।।

    सुनहु भरत भावी प्रबल, बिलखि कहेउ मुनिनाथ ।

    हानि लाभु जीवनु मरनु, जसु अपजसु बिधि हाथ ।।42।।

    अवसि चलिअ बन रामु जहँ, भरत मंत्रु भल कीन्‍ह ।

    सोक सिंधु बूड़त सबहिं, तुम्‍ह अवलंबनु दीन्‍ह ।।43।।

    अरथ न धरम न काम रूचि, गति न चहउँ निरबान ।

    जनम जनम रति राम पद, यह बरदानु न आन ।।44।।

    बरबस लिए उठाद उर, लाए कृपानिधान ।

    भरत राम की मिलनि लखि, बिसरे सबहि अपान ।।45।।

    सब के उर अंतर बसहु, जानहु भाउ कुभाउ ।

    पुरजन जननी भरत हित, होइ सो कहिअ उपाउ ।।46।।

    मुखिया मुखु सो चाहिए, खान पान कहुँ  एक ।

    पालइ पोषइ सकल अँग, तुलसी सहित बिबेक ।।47।।

    नित पूजत प्रभु पॉंवरी, प्रीति न हृदयँ समाति ।

    मागि मागि आयसु करत, राज काज बहु भॉंति ।।48।।

    अरण्‍यकाण्‍ड के के महत्‍वपूर्ण दोहे-

    कलिमल समन दमन मन, राम सुजस सुखमूल ।

    सादर सुनहिं जे तिन्‍ह पर, राम रहहिं अनुकूल ।।49।।

    सीता अनुज समेत प्रभु, नील जलद तनु स्‍याम ।

    मम हियँ बसहु निरंतर, सगुनरूप श्रीराम ।।50।।

    र्इश्‍वर जीव भेद प्रभु, सकल कहौ समुझाइ ।

    जातें होइ चरन रति, सोक मोह भ्रम जाइ ।।51।।

    लछिमन अति लाघवँ सो, नाक कान बिनु किन्हि ।

    ताके कर रावन कहँ, मनौं चुनौती दीन्हि ।।52।।

    क्रोधवंत तब रावन, लीन्हिसि रथ बैठाइ ।

    चला गगनपथ आतुर, भयँ रथ हॉंकि न जाइ ।।53।।

    जेहि बिधि कपट कुरंग सँग, धाइ चले श्रीराम ।

    सो छबि सीता राखि उर, रटति रहति हरिनाम ।।54।।

    सीता हरन तात जनि, कहहु पिता सन जाह ।

    लौं मैं राम त कुल सहित, कहिहि दसानन आइ ।।55।।

    अबिरल भगति मागि बर, गीध गयउ हरिधाम ।

    तेहि की क्रिया जथोचित, निज कर कीन्‍ही राम ।।56।।

    लोभ के इच्‍छा दंभ बल, काम कें केवल नारि ।

    क्रोध कें परूष बचन बल, मुनिबर कहहिं बिचारि ।।57।।

    काम क्रोध लाभादि मद, प्रबल मोह कै धारि ।

    तिन्‍हँ महँ अति दारून दुखद, मायारूपी नारि ।।58।।

    किष्किन्‍धाकाण्‍ड के महत्‍वपूर्ण दोहे-

    तब हनुमंत उभय दिसि, की सब कथ सुनाइ ।

    पावक साखी देइ करि, जोरी प्रीति दृढ़ाइ ।।59।।

    राम चरन दृढ़ प्रीति करि, बालि कीन्‍ह तनु त्‍याग ।

    सुमन माल जिमि कंठ ते, गिरत न जानइ नाग ।।60।।

    भूमि जीव संकुल रहे, गए सरद रितु पाइ ।

    सदगुर मिलें जाहिं जिमि, संसय भ्रम समुदाइ ।।61।।

    निज इच्‍छॉं प्रभु अवतरइ, सुर महि गो द्विज लागि ।

    सगुन उपासक संग तहँ, रहहिं मोच्‍छ सब त्‍यागि ।।62।।

    भव भेषज रघुनाथ जसु, सुनहिं जे नर अरु नारि ।

    तिन्‍ह कर सकल मनोरथ, सिद्ध करहिं त्रिसिरारि ।।63।।

    सुंदरकाण्‍ड के महत्‍वपूर्ण दोहे-

    हनुमान तेहि परसा, कर पुनि कीन्‍ह प्रनाम ।

    राम काजु कीन्‍हें बिना, मोहि कहॉं विश्राम ।।64।।

    तात स्‍वर्ग अपबर्ग सुख, धरिअ तुला एक अंग ।

    तुल न ताहि सकल मिलि, जो सुख लव सतसंग ।।65।।

    रामायुध अंकित गृह, सोभा बरनि न जाह ।

    नव तुलसिका बृंद तहँ, देखि हरष कपिराइ।।66।।

    तब हनुमंत कही सब, राम कथा निज नाम ।

    सुनत जुगल तन पुलक मन, मगन सुमिरि गुन ग्राम ।।67।।

    कपि के बचन सप्रेम सुनि, उपजा मन बिस्‍वास ।

    जाना मन क्रम बचन यह, कृपासिंधु कर दास ।।68।।

    निसिचर निकर पतंग सम, रघुपति बान कृसानु ।

    जननी हृदयँ धीर धरू, जरे निसाचर जानु ।।69।।

    कपिहि बिलोकि दसानन, बिहसा कहि दुर्बाद ।

    सुत बध सुरति कीन्हि पुनि, उपजा हृदयँ बिषाद ।।70।।

    नाम पाहरू दिवस निसि, ध्‍यान तुम्‍हार कपाट ।

    लोचन निज पद जंत्रित, जाहिं प्रान केहिं बाट ।।71।।

    सचिव बैद गुर तीनि जौं, प्रिय बोलहिं भय आस ।

    राज धर्म तन तीनि कर, होइ बेगिहीं नास ।।72।।

    काम क्रोध मद लोभ सब, नाथ नरक के पंथ ।

    सब परिहरि रघुबीरहि, भजहु भजहिं जेहि संत ।।73।।

    श्रवन सुजसु सुनि आयउँ, प्रभु भंजन भव भीर ।

    त्राहि त्राहि आरति हरन, सरन सुखद रघुबीर ।।74।।

    काटेहिं पइ कदरी फरइ, कोटि जतन कोउ सींच ।

    बिनय न मान खगेस सुनु, डाटेहिं पइ नव नीच ।।75।।

    सकल सुमंगल दायकहिं,  रघुनायक गुन गान ।

    सादर सुनहिं ते तरहिं भव, सिंधु बिना जलजान ।।76।।

    लंकाकाण्‍ड के महत्‍वपूर्ण दोहे-

    लव निमेष परमानु जुग, बरष कलप सर चंड ।

    भजसि न मन तेहि राम को, कालु जासु कोदंड ।।77।।

    श्री रघुबीर प्रताप ते, सिंधु तरे पाषान ।

    ते मतिमंद जे राम तजि, भहिं जाइ प्रभु आन ।।78।।

    बिस्‍वरूप रघुबंस मनि, करहु बचन बिस्‍वासु ।

    लोक कल्‍पना बेद कर, अंग अंग प्रति जासु ।।79।।

    भूमि न छॉंडत कपि चरन, देखत रिपु मद भाग ।

    कोटि बिघ्‍न ते संत कर, मन जिमि नीति न त्‍याग ।।80।।

    नानायुध सर चाप धर, जातुधान बल बीर ।

    को‍ट कँगूरन्हि चढि़ गए, कोटि कोटि रनधीर ।।81।।

    गिरिजा जासु नाम जपि, मुनि काटहिं भव पास ।

    सो कि बंध तर आवइ, ब्‍यापक बिस्‍व निवास ।।82।।

    दुहु दिसि जय जयकार करि, निज निज जोरि जानि ।

    भिरे बीर इत रामहिं, उत रावनहि बखानि ।।83।।

    तानेउ चाप श्रवन लगि, छॉंड़े बिसिख कराल ।

    राम मारगन गन चले, लहलहात जनु ब्‍याल ।।84।।

    खैंचि सरासन श्रवन लगि, छाड़े सर एकतीस ।

    रघुनायक सायक चले, मानहुँ काल फनीस ।।85।।

    अनुज जानकी सहित प्रभु, कुसल कोसलाधीस ।

    सोभा देखि हरषि मन, अस्‍तुति कर सुर ईस ।।86 ।।

    समर बिजस रघुबीर के, चरित जे सुनहिं सुजान ।

    बिजय बिबेक बिभूति नित, तिन्‍हहि देहिं भगवान ।।87।।

    उत्‍तरकाण्‍ड के महत्‍वपूर्ण दोहे-

    रहा एक दिन अवधि कर, अति आतुर पुर लोग ।

    जहँ तहँ सोचहिं नारि नर, कृस तन राम बियोग ।।88।।

    आवत देखि लोग सब, कृपासिंधु भगवान ।

    नगर निकट प्रभु प्रेरेउ, उतरेउ भूमि बिमान ।।89।।

    वह सोभा समाज सुख, कहत न बनइ खगेस ।

    बरनहिं सारद सेष श्रुति, सो रस जान महेस ।।90।।

    बार बार बर मागउँ, हरषि देहु श्रीरंग ।

    पद सरोज अनपायनी, भगति सदा सतसंग ।।91।।

    निज उर माल बसन मनि, बालितनय पहिराइ ।

    बिदा कीन्हि भगवान तब, बहु प्रकार समुझाइ ।।92।।

    राम राज नभगेस सुनु, सचाराचर जग माहिं ।

    काल कर्म सुभाव गुन, कृत दुख काहुहि नाहिं ।।93।।

    बिधु महि पूर मयूखन्हि, रबि तप जेतनेहि काज ।

    मागे बारिद देहि जल, रामचंद्र के राज ।।94।।

    ग्‍यान गिरा गोतीत अज, माया मन गुन पार ।

    सोइ सच्चिदानंद घन, कर नर चरित उदार ।।95।।

    पर द्रोही पर दार रत, पर धन पर अपबाद ।

    ते नर पॉंवर पापमय, देह धरें मनुजाद ।।96।।

    औरउ एक गुपुत मत, सबहि कहउँ कर जोरि ।

    संकर भजन बिना नर, भगति न पावइ मोरि ।।97।।

    नाथ एक बर मागऊँ, राम कृपा करि देहु ।

    जन्‍म जन्‍म प्रभु पद कमल, कबहुँ घटै जनि नेहु ।।98।।

    बिरति ग्‍यान बिग्‍यान दृढ़, राम चरन अति नेह ।

    बायस तन रघुपति भगति, मोहि परम संदेह ।।99।।

    बिनु सतसंग न हरि कथा, तेहि बिनु मोह न भाग ।

    मोह गऍं बिनु राम पद, होइ न दृढ़ अनुराग ।।100।।

    श्रोता सुमति सुसील सुचि, कथा रसिक हरि दास ।

    पाइ उमा अति गोप्‍यमति, सज्‍जन करहिं प्रकास ।।101।।

    ब्‍यापि रहेउ संसार महुँ, माया कटक प्रचंड ।

    सेनापति कामादि भट, दंभ कपट पाषंड ।।102।।

    रामचंद्र के भजन बिनु, जो चहपद निर्बान ।

    ग्‍यानवंत अपि सो नर, पसु बिनु पूँछ बिषा

    बिनु बिस्‍वास भगति नहिं, तेहि बिनुद्रवहिं न रामु ।

    राम कृपा बिनु सपनेहुँ, जीव न लह बिश्रामु ।।104।।

    कलिजुग सम जुग आन नहिं, जौं नर कर बिस्‍वास ।

    गाइ राम गुन गन बिमल, भव तर बिनहिं प्रयास ।।105।।

    कहत कठिन समुझत कठिन, साधत कठिन बिबेक ।

    होइ घुनाच्‍छर न्‍याय जौं, पुनि प्रत्‍यूह अनेक ।।106।।

    बारि मथे घृत होइ बरू, सिकता ते बरू तेल ।

    बिनु हरि भजन न भव तरिअ, यह सिद्धांत अपेल ।।107।।

    मो सम दीन न दीन हित, तुम्‍ह समान रघुबीर ।

    अस बिचारी रघुबंस मनि, हरहु बिषम भव भीर ।।108।।

  • न ।।103।।
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